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क्या विज्ञान ने परमेश्‍वर के वजूद को झुठला दिया?

क्या विज्ञान ने परमेश्‍वर के वजूद को झुठला दिया?

क्या विज्ञान ने परमेश्‍वर के वजूद को झुठला दिया?

पचास सालों तक ब्रिटेन के तत्वज्ञानी एन्टनी फ्लू अपने दोस्तों के बीच एक नास्तिक के तौर पर जाने जाते थे और लोग उनकी काफी इज़्ज़त भी करते थे। सन्‌ 1950 में प्रकाशित इनका एक साहित्य “थियोलॉजी एंड फॉल्सिफिकेशन” (अँग्रेज़ी), “तत्वज्ञान पर आधारित [बीसवीं] सदी का सबसे ज़्यादा छापा गया साहित्य था।” सन्‌ 1986 में फ्लू को “उस समय का सबसे बड़ा आलोचक” कहा गया क्योंकि वह ईश्‍वर या देवताओं पर विश्‍वास करनेवाले लोगों की बढ़-चढ़कर आलोचना किया करते थे। लेकिन जब 2004 में फ्लू ने घोषणा की कि उन्होंने अपना नज़रिया बदल दिया है, तो कई लोग चकरा गए।

आखिर फ्लू ने अपना नज़रिया क्यों बदला? एक शब्द में इसकी वजह बतायी जाए तो वह है, विज्ञान। उन्हें यकीन हो गया था कि विश्‍व, प्रकृति के नियम और जीवन अपने आप शुरू नहीं हो सकते। क्या उनका इस नतीजे पर पहुँचना सही था?

प्रकृति के नियम कैसे शुरू हुए?

भौतिकविज्ञानी और लेखक पॉल डेविस कहते हैं कि विज्ञान ने प्रकृति की कुछ प्रक्रियाओं, जैसे बारिश के बारे में काफी अच्छी तरह समझाया है। लेकिन वे कहते हैं: “जब . . . ऐसे सवाल खड़े होते हैं कि ‘प्रकृति के नियम क्यों वजूद में हैं?’ तो जवाब पाना आसान नहीं। वैज्ञानिक खोज इस तरह के सवालों का जवाब नहीं दे सकते: मानव इतिहास की शुरूआत में उठे जीवन के कई बड़े सवालों का जवाब आज तक नहीं मिला है और ये आज भी हमें उलझन में डाले हुए हैं।”

सन्‌ 2007 में फ्लू ने लिखा, “अहम बात सिर्फ यह नहीं कि प्रकृति में एक व्यवस्था या क्रम है, बल्कि यह है कि गणित के नियमों के मुताबिक यह व्यवस्था बिलकुल सटीक है, सभी चीज़ों पर लागू होती है और इसके तहत सारी चीज़ें ‘एक-दूसरे से जुड़ी’ हैं। आइंस्टाइन ने भी प्रकृति के बारे में कहा कि यह साबित करती है कि किसी बुद्धिमान व्यक्‍ति ने इसकी रचना की है। हमें खुद से यह सवाल पूछना चाहिए कि प्रकृति कैसे इस रूप में ढल गयी। न्यूटन, आइंस्टाइन और हाइज़नबर्ग जैसे वैज्ञानिकों के मन में यह सवाल उठा और उन्होंने इसका जवाब भी दिया। उनका जवाब था, परमेश्‍वर की बुद्धि से यह सब मुमकिन हुआ।”

देखा जाए तो बहुत-से जाने-माने वैज्ञानिकों के मुताबिक यह बात विज्ञान के खिलाफ नहीं कि सृष्टि की शुरूआत किसी बुद्धिमान शख्स ने की है। दूसरी तरफ यह कहना सही नहीं लगता कि विश्‍व, उसके नियम और जीवन इत्तफाक से आ गए। इस तरह की बातों से हमें अहम सवालों के सही-सही जवाब नहीं मिलते। तजुरबा यही कहता है कि हम जो भी उपकरण इस्तेमाल करते हैं, उसे ज़रूर किसी-न-किसी इंसान ने बनाया होता है।

आप किस विश्‍वास को चुनेंगे?

हालाँकि नए नास्तिकों का दावा है कि उनकी बातें विज्ञान पर आधारित हैं, पर सच्चाई यह है कि न तो नास्तिकवाद (परमेश्‍वर के वजूद को नकारना), न ही आस्तिकवाद (परमेश्‍वर के वजूद पर यकीन करना) पूरी तरह से विज्ञान पर आधारित हैं। दोनों में एक हद तक विश्‍वास शामिल है, नास्तिकवाद में माना जाता है कि सबकुछ अपने आप शुरू हो गया, जबकि आस्तिकवाद के मुताबिक सृष्टि की रचना ज़रूर किसी बुद्धिमान व्यक्‍ति ने की है। जॉन लेनॉक्स जो इंग्लैंड यूनिवर्सिटी ऑफ ऑक्सफर्ड में गणित के प्रोफेसर हैं, लिखते हैं कि नए नास्तिक इस धारणा को बढ़ावा देते हैं कि “सभी धार्मिक विश्‍वास असल में अंधविश्‍वास हैं।” वे आगे लिखते हैं: “हमें ज़ोर देकर कहना चाहिए कि वे लोग गलत हैं।” तो अब सवाल उठता है कि किसकी बात सही साबित की जा सकती है—नास्तिकों की, या आस्तिकों की? जवाब पाने के लिए आइए जीवन की शुरूआत पर गौर करें।

विकासवाद पर यकीन करनेवाले यह कबूल करने में बिलकुल नहीं हिचकिचाते कि जीवन की शुरूआत अभी तक एक पहेली है। हालाँकि इसे समझाने के लिए कई सिद्धांत दिए जा चुके हैं, लेकिन वैज्ञानिक इसे ठीक तरह से समझा नहीं पाते और उनके बताए सिद्धांत भी एक-दूसरे से मेल नहीं खाते। एक प्रमुख नए नास्तिक रिचर्ड डॉकन्ज़ दावा करते हैं कि विश्‍व में इतने सारे ग्रह हैं कि जीवन की शुरूआत कहीं-न-कहीं तो होनी ही थी। लेकिन कई जाने-माने वैज्ञानिक यह बात इतने यकीन के साथ नहीं कहते। कैमब्रिज यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर जॉन बैरो कहते हैं, “जीवन और बुद्धि का विकास अपने आप हुआ है,” इसे समझाने के लिए जितनी भी दलीलें दी गयीं “वे हर बार नाकामयाब रहीं। एक जटिल और खतरनाक वातावरण में जीवन के अपने आप शुरू हो जाने की गुंजाइश इतनी कम है कि यह मानना बेवकूफी होगा कि सिर्फ काफी मात्रा में कार्बन के होने से, समय के चलते जीवन खुद-ब-खुद आ सकता है।”

यह भी याद रखिए कि जीवन महज़ रसायनिक तत्वों का मिश्रण नहीं है। इसके बजाय यह डी.एन.ए. पर आधारित होता है, जिसमें बहुत ही जटिल जानकारी दर्ज़ होती है। इसलिए जब हम जीवन की शुरूआत के बारे में बात करते हैं, तो हम एक तरह से जैविक जानकारी की शुरूआत के बारे में बात कर रहे होते हैं। हमारे हिसाब से जानकारी का एकमात्र स्रोत क्या है? एक शब्द में कहा जाए तो बुद्धि। आपको क्या लगता है, क्या एक-के-बाद-एक हुई घटनाओं से अपने आप जटिल जानकारी इकट्ठी हो सकती है? उदाहरण के लिए क्या कंप्यूटर का कोई प्रोग्राम, बीजगणित (अल्जेब्रा) का कोई नियम, कोई विश्‍वकोश या यहाँ तक कि केक बनाने की विधि अपने आप बन सकती है? बेशक नहीं। जबकि इनमें से एक भी चीज़, जटिलता और बिलकुल सही तरीके से काम करने के मामले में जीवित प्राणियों के आनुवंशिक कोड में दर्ज़ जानकारी की बराबरी नहीं कर सकती।

क्या विज्ञान के मुताबिक जीवन की शुरूआत इत्तफाक से हुई?

पॉल डेविस बताते हैं कि नास्तिकों के मुताबिक “यह विश्‍व बहुत रहस्यमय है और इत्तफाक से ऐसी घटनाएँ घटीं कि जीवन की शुरूआत हो गयी।” नास्तिक कहते हैं, “अगर इससे कुछ अलग हुआ होता तो इंसान वजूद में नहीं होते और न ही हम इस विषय पर चर्चा कर रहे होते। यह विश्‍व और इसके सारे हिस्से एक-दूसरे पर निर्भर हो भी सकते हैं और नहीं भी। लेकिन इसमें न तो ऐसी कोई खास बनावट नज़र आती है और न ही इसका ऐसा कोई मकसद है, जो हमें समझ आता है।” डेविस कहते हैं कि “इस विचारधारा का फायदा यह है कि इसे मानना बहुत आसान है, इतना आसान कि आगे फिर कोई सवाल ही नहीं उठता।”

अणु जीव-विज्ञानी माइकल डेनटन ने विकासवाद पर अपनी किताब ईवॉल्यूशन: अ थ्योरी इन क्राइसिस (अँग्रेज़ी) में लिखा कि विकासवाद का सिद्धांत “मध्य युग की ज्योतिष-विद्या के किसी सिद्धांत की तरह लगता है, न कि किसी ठोस . . . वैज्ञानिक सिद्धांत की तरह।” उन्होंने डार्विन के विकासवाद के सिद्धांत के बारे में कहा कि यह हमारे समय की सबसे बड़ी मनगढ़ंत कहानी है।

बेशक यह कहना कि जीवन की शुरूआत इत्तफाक से हुई, एक मनगढ़ंत कहानी ही लगती है। कल्पना कीजिए: एक पुरातत्वविज्ञानी को चौकोर आकार का एक खुरदरा पत्थर मिलता है। अगर वह कहे कि पत्थर उस आकार में अपने आप ढल गया तो यह गलत नहीं होगा। लेकिन बाद में उसे एक ऐसा पत्थर मिलता है जो किसी इंसान के शरीर के आकार में ढला हुआ है और जिसमें इंसान के नैन-नक्श की हर बारीकी साफ नज़र आती है। क्या इस पत्थर के बारे में भी पुरातत्वविज्ञानी यही कहेगा कि यह अपने आप उस आकार में ढल गया? नहीं। उसका दिमाग कहेगा, ‘किसी ने इसे तराशा है।’ इसी से मिलते-जुलते तर्क का इस्तेमाल करते हुए बाइबल कहती है: “हर घर का कोई न कोई बनानेवाला होता है, मगर जिसने सबकुछ बनाया वह परमेश्‍वर है।” (इब्रानियों 3:4) क्या आप इस बात से सहमत हैं?

लेनॉक्स ने लिखा, “अपने विश्‍व के बारे में हमें जितनी ज़्यादा जानकारी मिलती जा रही है, उतनी ही ज़्यादा यह धारणा मज़बूत होती जा रही है कि एक सृष्टिकर्ता है, जिसने एक मकसद से इस विश्‍व को रचा। और इसी बात से इस सवाल का सबसे सही जवाब मिलता है कि हम यहाँ क्यों हैं।”

अफसोस कि परमेश्‍वर के नाम पर किए जानेवाले बुरे-बुरे कामों की वजह से लोगों का उस पर से विश्‍वास उठता जा रहा है। इसलिए कुछ लोगों को लगता है कि अगर धर्म को खत्म कर दिया जाए, तो इंसान ज़्यादा खुश रहेंगे। आप क्या सोचते हैं? (g10-E 11)